समूचे उत्तर भारत में भगवान कुण्डेश्वर की विशेष मान्यता है। यहां पर प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में श्रद्धालु भगवान के दर्शन करने के आते है। कुण्डेश्वर स्थित शिवलिंग प्राचीन काल से ही लोगों की आस्था का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहां पर आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा सच्चे मन से मांगी गई हर कामना पूरी होती है।
कहा जाता है कि द्वापर युग में दैत्य राजा बाणासुर की पुत्री ऊषा जंगल के मार्ग से आकर यहां पर बने कुण्ड के अंदर भगवान शिव की आराधना करती थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें कालभैरव के रूप में दर्शन दिए थे और उनकी प्रार्थना पर ही कालांतर में भगवान यहां पर प्रकट हुए है।
कुण्डेश्वर मंदिर के पुजारी जमुना प्रसाद तिवारी बताते है कि संवत 1204 में यहां पर धंतीबाई नाम की एक महिला पहाड़ी पर रहती थी। एक दिन जब वह धान कूट रही थी, ओखली से रक्त निकलना शुरू हुआ। इस घटना की सूचना तत्कालीन महाराजा राजा मदन वर्मन को दी गई। राजा ने इस स्थल का निरीक्षण किया और यहां शिवलिंग की खोज की। इसके बाद राजा वर्मन ने यहां पर पूरे दरवार की स्थापना कराई।
सन 1937 में टीकमगढ़ रियासत के तत्कालीन महाराज वीर सिंह जू देव द्वितीय ने यहां खुदाई करवाई। हर तीन फीट पर एक जलहरी मिली, कुल सात जलहरियां। लेकिन शिवलिंग की पूरी गहराई तक नहीं पहुंच सके और भगवान के स्वप्न आदेश पर खुदाई बंद कर दी गई।
कुण्डेश्वर मंदिर न केवल एक धार्मिक स्थल है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी है। यहां आने वाले श्रद्धालुओं को एक अलौकिक और आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त होता है।
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