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भक्त सदन कसाई और भगवान शालिग्राम

सदन कसाई कौन थे?

सदन, एक कसाई जाति में जन्मे थे — एक ऐसा कुल जिसे प्राचीन समाज में अक्सर हेय दृष्टि से देखा जाता था। उनका दैनिक जीवन अत्यंत साधारण और सांसारिक था। सुबह उठते ही वह अपनी दुकान सजाते, मांस काटते, तौलते और ग्राहकों को बेचते। उनके हाथ खून से सने होते, उनकी दुकान से मांस की गंध आती, और चारों ओर से केवल व्यवसाय की आवाज़ें सुनाई देतीं।

समाज उन्हें केवल उनके पेशे के आधार पर परिभाषित करता था। "कसाई है, पापी है," ऐसा ही हर कोई सोचता था। वे ना किसी मंदिर के पुजारी थे, ना किसी संप्रदाय से जुड़े संत। ना उनके माथे पर तिलक था, ना उनके गले में रुद्राक्ष की माला। वे तो एक सामान्य गृहस्थ जीवन जीने वाले व्यापारी मात्र थे।

लेकिन यही वह बात थी जो इस कथा को असाधारण बनाती है।

जब शालिग्राम जी पत्थर बनकर सदन के पास पहुँचे

एक दिन सदन कसाई रास्ते से गुजर रहे थे, तो उन्हें एक गोल, भारी पत्थर मिला। उन्होंने सोचा, “यह तो तराजू में तौलने के काम आएगा।” वे उसे अपनी दुकान पर ले आए और उस पत्थर से मांस तौलने लगे

यह पत्थर कोई साधारण पत्थर नहीं, बल्कि स्वयं भगवान शालिग्राम थे।

सदन जब भी मांस तौलते, उनकी आँखों से आँसू बहते, और वे कीर्तन करते रहते — “राम नाम की माला जपते जपते रोते थे।”

महात्मा का आगमन और शालिग्राम भगवान की पहचान

वह एक शांत दोपहर थी। मार्ग पर एक संत, मुख पर एक पतली सफेद चादर बाँधे, ईश्वर-चिंतन में मग्न होकर जा रहे थे। वे सांसारिक ध्वनियों से ऊपर उठ चुके थे, उनकी दृष्टि भीतर की ओर थी, पर उनका हृदय ईश्वर के प्रति सजग और जगा हुआ था। जब वे सदन कसाई की दुकान के समीप पहुँचे, तभी अचानक उनकी नज़र तराजू के पलड़े पर पड़ी। एक गोल, काले-नीले रंग का पत्थर वहाँ रखा था। जैसे ही संत की दृष्टि उस पर पड़ी, उनका शरीर एक क्षण के लिए स्थिर हो गया। उनकी आत्मा काँप उठी। जैसे भीतर से कोई पुकार उठा हो—यह साधारण पत्थर नहीं है। यह तो साक्षात भगवान का रूप है।

वे आगे बढ़े, और कंपकंपाते स्वर में बोले—“अरे! यह क्या कर रहे हो? यह तो शालिग्राम है! श्रीहरि स्वयं इस रूप में प्रतिष्ठित हैं! तुम इनसे मांस तौलते हो? यह बहुत बड़ा पाप है!” उनका कंठ अवरुद्ध हो गया। आँखों से अश्रुधार बह निकली। सदन जो दुकान के भीतर कुछ मांस तौल रहे थे, चौंक पड़े। उन्होंने संत को देखा, उनके हाथ काँपने लगे। वे दौड़ते हुए बाहर आए, दोनों हाथ जोड़कर संत के चरणों में झुक गए। उनकी आँखों से भी आँसू बहने लगे। वे बोले—“महाराज, मुझे क्षमा कीजिए। मैं अज्ञानी हूँ। मैं नहीं जानता था कि यह भगवान हैं। मेरे लिए तो यह केवल एक भार तौलने वाला पत्थर था। कृपा कर के आप इन्हें अपने साथ ले जाइए। मैं इस योग्य नहीं कि इन्हें अपने पास रख सकूँ।”

संत ने धीरे से उस शालिग्राम को अपने वस्त्र में समेट लिया, मानो स्वयं विष्णु को अपनी गोदी में ले जा रहे हों। उनका मन गदगद हो उठा। वे शालिग्राम को लेकर अपने आश्रम की ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचते ही उन्होंने प्रभु की सेवा आरंभ की। सबसे पहले उन्होंने निर्मल गंगा जल से स्नान कराया। इसके पश्चात पंचामृत से स्नान करवाया—दूध, दही, घी, मधु और शहद से। फिर इत्र की हल्की सुगंध और चंदन से प्रभु के शरीर को सुवासित किया। एक सुंदर चांदी का सिंहासन सजाया गया, जिसे सफेद वस्त्र से ढँक कर सजाया गया। उस पर प्रभु को बैठाया गया। प्रेम से तुलसी की माला पहनाई गई। उसके पश्चात उन्होंने अपने हाथों से खीर बनाकर भगवान को भोग लगाया।

आश्रम में आरती की घंटियाँ गूंज उठीं। संत स्वयं कीर्तन करते हुए रो रहे थे। वे बार-बार भगवान से कह रहे थे—“प्रभु! आप एक कसाई की दुकान में थे? आप वहाँ मांस के बीच कैसे रह रहे थे? आपके लिए तो यह सिंहासन है, यह भोग है, यह शुद्धता है, यही आपका स्थान है।” वे रोते हुए बोले—“अब आप यहीं रहिए, यहीं प्रेम से विराजिए। मैंने आपको आपके योग्य स्थान पर पहुँचा दिया है।”

लेकिन उस रात संत के जीवन की सबसे बड़ी अनुभूति हुई। जैसे ही वे निद्रा में गए, उन्होंने स्वप्न में भगवान शालिग्राम के दिव्य स्वरूप को देखा—और वहीं से कथा ने एक नया मोड़ ले लिया…

ठाकुर जी का स्वप्न संदेश

रात को शालिग्राम भगवान ने संत को स्वप्न में दर्शन दिए और कहा:

“हमें सदन कसाई के पास वापस ले जाओ। जब वह तराजू पर तौलते हैं और कीर्तन करते हैं, हमें उसमें आनंद आता है। उनका प्रेम निष्कलंक है, हमें वही रहना है।”

संत ने विनती की, “प्रभु, वह तो मांस विक्रेता है! वह आपको एक पलड़े में रखता है और दूसरे में मांस! यह तो वेद-विरुद्ध है।”

भगवान बोले:

“हमें सिंहासन नहीं चाहिए, ना ही चांदी के बर्तन, हमें उस प्रेम से सराबोर अश्रु चाहिए जो वह बहाता है। वह जहाँ रखेगा, हम वहीं रहेंगे।”

आत्मा को झकझोर देने वाला मोड़

जब संत ने शालिग्राम को सदन को लौटाया, तो सदन कांपते हुए बोले:

“महाराज! मैं तो पापी हूँ, मांस बेचता हूँ, मुझे क्यों दे रहे हैं?”

संत ने कहा, “यह ठाकुर जी की इच्छा है। वे स्वयं तुम्हारे पास रहना चाहते हैं।”

यह सुनकर सदन का अंतर्मन हिल गया। उन्होंने सोचा:

“प्रभु मुझ जैसे पापी को अपनाने को तैयार हैं, तो क्या मैं उनके लिए अपने जीवन को शुद्ध नहीं बना सकता?”

उन्होंने उसी क्षण मांस बेचना छोड़ दिया और अपने जीवन को भक्ति में समर्पित कर दिया

🙏 जय श्री शालिग्राम | जय सदन भक्त 🌺

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