राजा जयमलजी: श्री रघुनाथजी के महान भक्त

राजा जयमलजी: भक्ति, शौर्य और भगवान की कृपा की अनुपम गाथा

भारतभूमि संतों और भक्तों की पवित्र भूमि रही है, और राजस्थान की रियासत मेड़ता में जन्मे राजा जयमलजी एक ऐसे ही अनन्य भगवत भक्त, वीर राजा और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के परम सेवक थे। वे श्री हितहरिवंश महाप्रभुजी के शिष्य थे और राधा-माधव की भक्ति में रसमग्न रहते हुए भी, उनके हृदयसिंहासन पर धनुषधारी श्रीराम का राज्य था।

भक्ति में बाधा असहनीय थी

जयमलजी नित्य १० घड़ी (लगभग ४ घंटे) भगवान की पूजा और भजन में लीन रहते। उनका यह नियम इतना दृढ़ था कि उस समय कोई भी राजकीय कार्य, चाहे जितना ही आपातकालीन क्यों न हो, उन्हें सूचित नहीं किया जाता। सेवा में विघ्न डालने वाले को मृत्युदंड की आज्ञा थी — इतनी निष्ठा थी ठाकुरजी की सेवा के प्रति।

एक कुटिल योजना और भगवान का हस्तक्षेप

जयमलजी का एक भाई, जो मांडोवर राज्य का शासक था, राज्य की लालसा में अंधा हो गया। उसे जयमलजी के सेवा नियम का ज्ञान था, तो उसने पूजा के समय मेड़ता पर आक्रमण कर दिया — यह सोचकर कि कोई सूचना नहीं देगा।

राज्य संकट में था। मंत्रियों ने हारकर राजमाता से प्रार्थना की कि वे ही राजा को सूचना दें। जब जयमलजी को बताया गया, उन्होंने शांत भाव से केवल इतना कहा, "भगवान श्रीराम सब भला करेंगे।"

सांवला सिपाही: भगवान रघुनाथजी का अवतार

उसी समय भगवान श्रीराम ने एक सिपाही का रूप धारण किया — एक हाथ में तलवार, एक में भाला, पीठ पर ढाल और चित्त से अपने भक्त की रक्षा का संकल्प। वे जयमलजी के घुड़साल से घोड़ा निकाल युद्धभूमि पहुंचे।

भगवान ने पूरी सेना को धराशायी कर दिया, पर किसी का प्राण नहीं लिया। शत्रु राजा को बस अपनी एक दृष्टि से मूर्छित कर दिया, और वापस लौटकर घोड़ा यथास्थान बाँध दिया।

जब जयमलजी अपने भाई से मिलने पहुंचे तो उसने बताया, "एक सांवला सिपाही आया था — उसकी मुस्कान और दृष्टि ने ही मुझे मूर्छित कर दिया।" राजा को सब समझ में आ गया कि वह और कोई नहीं, स्वयं श्रीराम थे।

जयमलजी भाई के साथ रो पड़े — "तू धन्य है, तुझे मेरे रघुलाल के दर्शन हुए।" भाई ने भी पश्चाताप किया, क्षमा मांगी और भगवान का भक्त बन गया।

जब रानी को बालरूप में रघुनाथजी के दर्शन हुए

एक दिन गर्मियों में विश्राम करते समय राजा को ध्यान आया कि जिस कक्ष में वे रहते हैं, वह शीतल और आरामदायक है, पर उनके ठाकुरजी का मंदिर तो निचली मंजिल में है — वहाँ गर्मी अधिक लगती होगी। उन्होंने छत पर एक हवादार मंदिर बनवाया और वहीं ठाकुरजी की मानसी सेवा आरंभ की।

रात्रि में वे स्वयं शैय्या सजाते, इत्र, जल, पान आदि रखकर पूजा कर नीचे आ जाते और सीढ़ी हटा देते। किसी को ऊपर जाना वर्जित था — यहाँ तक कि रानी को भी इसका ज्ञान नहीं था।

एक रात रानी को जिज्ञासा हुई। उन्होंने चुपचाप सीढ़ी लगाई और पर्दा हटाकर देखा — सामने एक अनुपम सौंदर्ययुक्त किशोर बालक शयन कर रहा था। रानी का हृदय उस छवि से मोहित हो गया।

सुबह रानी ने राजा को यह बताया। राजा ने उन्हें डांटा, कहा, “लालजी की नींद में विघ्न न डालो।” लेकिन भीतर ही भीतर वे यह जानकर प्रसन्न हुए कि उनकी रानी को श्री रघुनाथजी के दर्शन हुए।


राजा जयमलजी की कथा केवल एक राजा की नहीं, एक महाभक्त की है — जिनके लिए ईश्वर स्वयं युद्धभूमि में उतर आए। यह कथा हमें सिखाती है कि सच्ची भक्ति न केवल जीवन बदलती है, बल्कि स्वयं भगवान को भी विवश कर देती है भक्त की रक्षा हेतु अवतरित होने के लिए।

जय श्री रघुनाथ! जय राजा जयमलजी!

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