आचार्य सुनील तिवारी जी का जन्म 3 जून 1987 को छत्तीसगढ़ के कसडोल में हुआ था। कसडोल, जो चित्रोत्पला गंगा की पावन धरती और रघुवंशी युवराज लव कुश की नगरी के रूप में प्रसिद्ध है, वहां जन्म लेना अपने आप में एक गौरव का विषय है। आचार्य सुनील जी का जन्म एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ, जिनके पिता पंडित श्री गोरेलाल तिवारी और माता श्रीमती मोंगरा देवी जी हैं। उनके जन्म से पूरा क्षेत्र और देश धन्य हो गया, क्योंकि उन्होंने इस संसार में एक अलौकिक मणि के रूप में अवतार लिया था।
बचपन से ही आचार्य सुनील तिवारी जी का मन धार्मिक आयोजनों और संतों के सानिध्य में रमा रहता था। यह उनकी धार्मिक प्रवृत्ति और संस्कारों का ही परिणाम था कि उन्होंने मात्र 7 वर्ष की आयु में रामचरितमानस पर अपना पहला प्रवचन दिया। इतनी छोटी सी उम्र में रामचरितमानस जैसे ग्रंथ पर प्रवचन देना उनके गहन धार्मिक ज्ञान और प्रवृत्ति को दर्शाता है। यह उनकी आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत थी, जिसने आगे चलकर उन्हें एक प्रतिष्ठित धर्म गुरु और भागवत कथा वाचक के रूप में स्थापित किया।
जब आचार्य सुनील तिवारी जी 19 वर्ष की आयु में राज्य पुलिस सेवा में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे, तब उनका मिलन परमपूज्य जगदगुरू शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी से हुआ। इस दिव्य मिलन ने उनके जीवन को एक नया दिशा प्रदान किया। स्वामी स्वरूपानंद जी से प्रेरणा पाकर, आचार्य सुनील जी ने सनातन धर्म की रक्षा और सेवा का प्रण लिया। इस प्रण ने उन्हें जीवन भर धर्म सेवा के पथ पर अग्रसर किया, और आज वे इस मार्ग के एक प्रमुख प्रचारक हैं।
आचार्य सुनील तिवारी जी आज एक चेतनापुरुष और प्रज्ञावान युवा राष्ट्रीय भागवत कथा वाचक के रूप में जाने जाते हैं। वे न केवल भागवत कथा का वाचन करते हैं, बल्कि उनकी सरस और सरल शैली में गाए गए भजनों में भी उनकी निपुणता झलकती है। उनके प्रवचनों और भजनों में आध्यात्मिकता और भक्ति की गहरी अनुभूति होती है, जो श्रोताओं के हृदय को छू जाती है। उनकी कथा और भजन श्रोताओं को धर्म के प्रति जागरूक और प्रेरित करते हैं, और उन्हें आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं।
आचार्य सुनील तिवारी जी का जीवन और कार्य न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह उन सभी के लिए प्रेरणादायक है जो धर्म, भक्ति और सेवा के मार्ग पर चलना चाहते हैं। उनके जीवन से हमें यह सीख मिलती है कि अगर हमारी निष्ठा और समर्पण सच्चे हों, तो हम धर्म की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर सकते हैं और समाज में एक सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं।
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