भारत भूमि सदैव संतों की भूमि रही है। ऐसे ही एक संत थे ज्ञानेश्वर संत जी जिनके शिष्य थे श्री त्रिलोचन जी महाराज।
त्रिलोचन जी महाराज वैश्य थे। वैश्य में भी महाजन थे। त्रिलोचन जी महाराज बहुत साधु सेवी थे साधु संतों की सेवा किया करते थे। उनके कोई संतान नहीं थी भगवान कृपा से धन की को कमी नहीं थी। महाजनी का काम अच्छा चल रहा था। व्यवसाय के उपरांत उनका समय साधु संतों की सेवा में ही व्यतीत होता था सेवा के प्रभाव से उनके मन में भी किसी प्रकार का अभाव नहीं था वह सदैव प्रसन्न मुद्रा में ही रहते थे। उन्हें कभी इस बात का अभाव नहीं हुआ कि उनके बेटा बेटी नहीं है वह कहते थे प्रभु की इच्छा है नहीं हुआ तो नहीं हुआ।
लेकिन एक बात की चिंता उनके मन में रहने लगी के अब हम बूढ़े हो चुके हैं और हमारे ठाकुर जी की सेवा कैसे होगी। और ठाकुर सेवा तो अपने हाथ के करने की चीज है किसी नौकर चाकर के हाथ से नहीं की जा सकती। व्यक्ति को स्वयं से ठाकुर जी की सेवा में संलग्न होना चाहिए।
अभी तक त्रिलोचन महाराज जी अपनी पत्नी के साथ ठाकुर जी की सेवा किया करते थे। परंतु अब उनका शरीर वृद्ध हो चुका था वह सोच रहे थे हे प्रभु अब कोई सेवक मिल जाता जैसे साधु संतों की सेवा होती रहती और हमारा भी काम चलता रहता। त्रिलोचन जी महाराज सदैव इसका चिंतन करने लगे की अब कैसे साधु संतों की सेवा होगी। पंढरीनाथ भगवान पंढरपुर के ठाकुर जी त्रिलोचन जी महाराज की यह दशा सहन नहीं कर पा रहे थे इसी कारण उन्होंने स्वयं नौकर बनने की सोची और ठाकुर जी स्वयं नौकर बनकर आ गए।
अब ठाकुर जी नौकर के स्वरूप में त्रिलोचन जी महाराज के पास पहुंचे। ठाकुर जी एक विचित्र रूप धारण किया हुआ था जिसमें फटी सी कामरी, फटे पुराने कपड़े, 15 16 साल की उम्र, केश घुंघराले परंतु स्वरूप अति सुंदर, परंतु ऐसा लग रहा था जैसे महीनों से नहीं नहाया हो। शरीर पर धूल मिट्टी चढ़ी है। केस उलझ के जटा जैसे हो गए हैं।
यहां पर त्रिलोचन जी महाराज नाम जप कर रहे हैं उनके नेत्रों से अश्रु प्रवाहित हो रहे हैं चिंतन कर रहे हैं प्रभु कोई सेवक मिल जाता जो संतों की सेवा करता रहता। तब तक ठाकुर जी आए। सेठ जी राम राम। त्रिलोचन जी ने अपने नेत्र खोले सोचने लगे बड़ा सुंदर बालक है लगता है नहाता धोता नहीं है, फटे पुराने कपड़े हैं, पैर में पुरानी से जुती है। उन्होंने पूछा बेटा तुम्हारा नाम क्या है
ठाकुर जी बोले अरे बाबूजी नाम सुनकर क्या करोगे तुलसी जी महाराज ने कहा अरे नाम तो जोड़ी है नाम बताओ बेटा नाम क्या है आपका।
ठाकुर जी ने अपना नाम बताया अंतर्यामी। त्रिलोचन जी बोले नाम तो बढ़िया है अंतर्यामी तो तुम सबकी अंतर्मन की जानते होंगे। ठाकुर जी मुस्कुरा गए कुछ बोले नहीं। त्रिलोचन जी ने पूछा आप कहां रहते हो ठाकुर जी ने बोला ऐसा कोई हमारा ठिकाना नहीं है जहां जगह मिलती है वहीं रह लेते हैं त्रिलोचन जी को लगा बेचारा अनाथ है। त्रिलोचन जी ने पूछा तुम्हारे माता-पिता का परिचय। ठाकुर जी बोले अगर हमारे माता-पिता होते तो हमारी यह हालत होती हम भी कहीं किसी अच्छी हालत में होते।
त्रिलोचन जी महाराज बोले तो ऐसे क्यों भटक रहे हो। ठाकुर जी बोले हम कुछ धंधा पानी के लिए भटक रहे हैं धंधा पानी मिल जाए तो उदर पोषण हमारा सही से हो जाए। त्रिलोचन जी बोले कुछ काम धंधा जानते हो ठाकुर जी बोले कि हमें चारों वर्ण और चारों आश्रमों की क्या मर्यादा है ,क्या सेवा है, क्या खाना पीना है वह सब मुझे मालूम है। यह सुनकर त्रिलोचन जी खूब हँसे और बोले तुम्हारी उम्र तो 16 ,17 से ज्यादा समझ में नहीं आ रही। बोले इतना अनुभव तुम्हें कैसे हो गया।
ठाकुर जी बोले आप विश्वास करो ना करो हम सब जानते हैं त्रिलोचन जी ने पूछा साधु सेवा करना आता है ठाकुर जी बोले साधु सेवा करते-करते मेरा जन्म बीत गया। त्रिलोचन जी बड़े हसे और बोले लड़का कुछ करे या ना करें पर बोलता बहुत अच्छा है।इसको रख लो अपने पास। त्रिलोचन जी बोले तुम्हें इतना अनुभव है और तुम इतने योग्य हो तो तुम्हें कही नौकरी क्यों नहीं मिली। कुछ ना कुछ खोट तुम्हारे में जरूर है ठाकुर जी बोले हां एक खोट है हमारे भीतर। हम काम से पीछे हटते नहीं है सब काम करते हैं पर हमारे बारे में कोई शिकायत करने लग जाए तो हम वहां पर रहते नहीं हैं हम वह जगह ही छोड़ देते हैं
त्रिलोचन महाराज जी ने पूछा क्या शिकायत करते हैं लोग? ठाकुर जी बोले हम बहुत खाते हैं त्रिलोचन जी हंसने लगे बोले घर में अन्न धन की कमी नहीं है कितना खाते हो।
ठाकुर जी बोले मैं 5 से 7 सेर खा लेता हूं।
“ठाकुर जी ने ऐसा क्यों कहा यह बात विचारणीय है क्योंकि अगर घर में ठाकुर जी विराजमान हैं तो उन्हें कम से कम पांच सेर का भोग अवश्य लगाना चाहिए नहीं तो दोष लगता है,”
त्रिलोचन जी ने कहा आप 10 सेर खाओ 12 सेर खाओ हमारी तरफ से खाने में कोई कमी नहीं है। पर साधु सेवा में कोई कमी नहीं आनी चाहिए
ठाकुर जी सोचने लगे बड़ा उदार भक्त है ठाकुर जी ने अपना प्रश्न कड़ा कर लिया और पुनः बोले: हम साधु संतों की सेवा करेंगे, आपके ठाकुर जी की भी सेवा करेंगे, आपकी भी सेवा करेंगे। लेकिन हमको रोटी बनाकर माता जी को खिलाना पड़ेगा आपकी जो ग्रहणी है भक्तानी उनको हमारे लिए खाना बनाकर हमें देना होगा। अभी तक त्रिलोचन जी की गृहणी ही खाना बनाती थी तो उन्होंने अपनी गृहणी से कहा: सेवक तो एक मिल गया है परंतु इसने एक विचित्र शर्त रखी है तुम्हें अपने हाथों से खाना बनाकर इसे खिलाना होगा।
त्रिलोचन जी की पत्नी बहुत सरल थी वह बोली अरे कोई बात नहीं मैं बना दिया करूंगी।लोग कहते थे तुम्हारा बेटा नहीं बेटा नहीं तो मैं इसे अपना बेटा मानकर ही इसे खिलाऊंगी।। त्रिलोचन जी बोले परंतु एक बात का सदैव स्मरण रहे अगर यह कह दिया कि यह पेटू है बड़ा खाता है तो यह है यहां से चला जाएगा।
त्रिलोचन जी की पत्नी बोली बोले हम क्यों कहेंगे यह बात।
त्रिलोचन जी महाराज की यहां पर ठाकुर जी ने 13 महीने सेवा की नौकर बनकर। सब तरह की सेवा चौका बरतन से लेकर झाड़ू लगाने तक खाना बनाने तक सब सेवा ठाकुर जी ने त्रिलोचन जी के घर पर करी। इतना ही नहीं ठाकुर जी कभी-कभी त्रिलोचन महाराज जी की भी मालिश कर दिया करते थे। उनके कपड़े धो दिया करते थे उनको चकाचक रखा करते थे।
ठाकुर जी के त्रिलोचन जी महाराज घर पर आने से रिद्धि सिद्धि बहुत बढ़ गई साधु संत भी वहां बड़ी संख्या में आने लगे। उत्सव महोत्सव बहुत होने लगे। जो साधु जिस प्रकार की वस्तु पाना चाहता है भगवान वही वस्तु बना देते और सब संतो की निरंतर सेवा किया करते थे।
समाज में त्रिलोचन जी महाराज की जय जयकार होने लगी कि त्रिलोचन जी महाराज के यहां साधु संतों की बड़ी सेवा हो रही है। ऐसा करते-करते 13 महीने बीत गए एक दिन त्रिलोचन जी की गृहणी एक घर में गयी। वहां पर सभी माताए मिलकर चर्चा करने लगी एक माताजी ने त्रिलोचन जी की ग्रहणी से बोला अरे तुम्हारे यहां अंतर्यामी क्या आया है स्वयं भगवान जी ही आ गए हैं ऐसी रिद्धि सिद्धि घर में आ गई है सब और नगर में सेठ जी की जय जयकार हो रही है सेठ जी के तो रंगत बदल गई है पर तुम तो अभी भी वैसी हो जैसी थी दुबली पतली, तो उन्होंने कहा अब उनको करना ही क्या पड़ता है कुछ नहीं, खाली माल फेरते हैं भजन करते रहते हैं, थोड़ा बहुत धंधे पानी की बात होती है तो वह देख लेते हैं। अब उनको कोई काम नहीं है माताजी पुणे बोली तो आपको भी कोई काम नहीं होगा अंतर्यामी ही आपका भी सारा काम करते होंगे।
त्रिलोचन जी महाराज की गृहणी के मुंह से निकल गया नहीं यही तो बात है अंतर्यामी सब करता है पर अंतर्यामी की सेवा हमको करने पड़ती है ।अच्छा क्या सेवा हाथ-पाथ दबाना ,कपड़ा धोना, बोला यह कुछ नहीं उसको भोजन करना पड़ता है बनाकर। अरे बहन क्या खाता होगा 16 17 साल का लड़का है दो चार रोटी खाता होगा। त्रिलोचन जी की ग्रहणी बोली अरे कुछ मत पूछो पांच सेर सात सेर एक बार में ही खा लेता है। अच्छा देखने में तो लग नहीं लगता है इतना खा लेता होगा।
त्रिलोचन जी महाराज की गृहणी मुख से यह बात निकलते ही ठाकुर जी अंतर ध्यान हो गए।
ठाकुर जी जब अंतर ध्यान हो गए तो त्रिलोचन जी बहुत दुखी हुए उनकी पत्नी बहुत दुखी हुई खाना पीना छोड़ दिया रोने लगे। घर-घर जाकर पूछते मेरा अंतर यामी देखा है कहीं अंत निश्चय किया प्राण ही त्याग देंगे तो साक्षात ठाकुर जी ही आ गए ठाकुर जी बोले हम तो सदा से संतों की नौकरी करते हैं हम तो आज भी तुम्हारे नौकर बनकर आने को तैयार है अब और भी त्रिलोचन जी रोने लगे बोले जगत नाथ जगतपति लक्ष्मीपति बैकुंठ नाथ को रुक्मणी नाथ को मैंने अपने घर में नौकर बना कर रखा मेरे पैर दबाया आपने आपने मेरे बर्तन साफ किया रसोई बनाई मैं बहुत अधम हूं भगवान ने हृदय से लगाए बोले हम तो बहुत प्रसन्न हैं
भक्तमाल की कथा में नाभा जी ने त्रिलोचन जी महाराज को चंद्रमा कहा है भक्ति जगत का चंद्रमा।
सिखों का जो पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब है उसमें भी श्री त्रिलोचन जी महाराज के पद सम्मिलित किए गए।
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