रामायण कालीन समय में बहुत सारे संत शिरोमणि हुये है, जिनमे प्रमुख नाम आता है महान संत शरभंग ऋषि का।
शरभंग ऋषि ने कई वर्षों तक ब्रह्मा जी की कठिन तपस्या की। फलस्वरूप, ब्रह्मा जी ऋषि से अत्यंत प्रसन्न हुए और वरदान स्वरूप इंद्र का पद प्रदान किया। वरदान पाकर शरभंग ऋषि अत्यंत प्रसन्न हुए।
ब्रह्मा जी ने ब्रह्म लोक से शरभंग ऋषि को लाने के लिए विमान भेजा। शरभंग ऋषि अत्यंत हर्षित होकर अपनी कुटिया से बाहर आए और विमान की ओर प्रस्थान करने लगे। सभी अन्य ऋषि मुनि एकत्रित हुए।
शरभंग मुनि जी ने विमान में अपनी जगह ग्रहण की। तभी एक अन्य मुनि ने कहा, "आप कहां जा रहे हैं?" शरभंग ऋषि बोले, "ब्रह्मलोक से ब्रह्मा जी ने विमान भेजा है, इंद्र बनने जा रहा हूं।" तभी ऋषि मुनि बोले, "आप जा रहे हैं, वो आ रहे हैं।"
शरभंग मुनि ने पूछा, "कौन आ रहा है?" ऋषि मुनि ने कहा, "राम जी आ रहे हैं, सुना है चित्रकूट से चल दिए हैं और आपकी कुटिया के सामने जो पगड़ंडी है, उसी से राम जी सीता जी लक्ष्मण जी गुजरने वाले हैं।"
राम जी आ रहे हैं, इतना सुनते ही शरभंग ऋषि जी विमान से कूद गए और दूतों से कहा, "जहाज लेकर जाओ।" दूतों ने कहा, "आप क्या कर रहे हैं, ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा, आपके सारे कर्मों का फल आपको मिल रहा है, आप इंद्र बनने वाले हैं।"
शरभंग ऋषि बोले, "मैं भी इसी ब्रह्म में था। जीवन भर के सत्कर्मों का फल मिलने वाला है, इंद्र बनने वाला हूं। मेरे सारे कामों का फल इंद्र बना नहीं है। मेरे सत्कर्मों का फल देने के लिए राम जी मेरी कुटिया के सामने आ रहे हैं, अब मुझे कहीं नहीं जाना है।"
ऋषि अपनी कुटिया के अंदर भी नहीं गए, वहीं बैठ गए और मुनि जी से पूछा, "राम जी किधर से आएंगे?" उन्होंने कहा, "उस दिशा से आएंगे।" शरभंग ऋषि इस दिशा की तरफ मुख करके बैठ गए और प्रतिदिन भगवान का ध्यान करने लगे।
आखिर वह घड़ी आ गई जब शरभंग ऋषि को प्रभु का दर्शन हुआ। वह प्रभु का एकटक दर्शन करते रहे। वह राम जी, लक्ष्मण जी, सीता जी को अपनी कुटिया के भीतर भी नहीं ले गए, वहीं प्रभु से उन्होंने कहा, "हे नाथ, मैंने जीवन भर कोई भी ऐसा कर्म नहीं किया जिससे मुझे आपका दर्शन प्राप्त हो सके। यह तो आपकी करुणा है प्रभु, जो आपने मुझे अपना दर्शन दिया। मैं इस लायक नहीं हूं कि आपके दर्शन कर सकूं।"
शरभंग ऋषि बोले, "प्रभु, आप यही खड़े रहिए।" शरभंग ऋषि कभी दिशा में जाते, कभी उसे दिशा में जाते हैं, अनेक लकड़ियां इकट्ठे कर उन्होंने अपनी चिता वही बनाई दी।
अपनी चिता पर बैठ गए और लक्ष्मण जी से उन्होंने कहा, "मेरे कमंडल से थोड़ा जला कर दीजिए, अंजनी में जल लेकर।" ऋषि ने प्रभु राम जी से कहा, "हे प्रभु, मेरे सारे कर्मों का पुण्य जो मैंने जीवन भर सत्य कर्म से प्राप्त किए हैं, मैं आपको समर्पित करता हूं।" शरभंग ऋषि बोले, "प्रभु, एक वरदान दीजिए।" प्रभु ने कहा, "मांगो।" शरभंग ऋषि बोले, "प्रभु, आप सीता जी के साथ, लक्ष्मण जी के साथ मेरे हृदय में निवास करिए।" प्रभु ने कहा, "तथास्तु।" उसके बाद सरभंग ऋषि ने दाहिने भाग के अंगूठे से अग्नि प्रज्वलित करी, और सदैव अग्नि में विलीन हो गए।
सीख: भगवान के दर्शन होने के बाद जीवन में फिर कुछ नहीं बचता। सदैव इच्छाओं से घिरे होने के साथ हम माया के बंधन में बंधे रहते हैं, इसलिए भगवान के दर्शन के बाद और कोई अन्य इच्छा हमारे हृदय में नहीं होनी चाहिए।
जोर से बोलिए:
सियावर रामचंद्र की जय,
पवन पुत्र हनुमान की जय,
शरभंग ऋषि की जय।
कृपया अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया लिखें